पेड़
पे गर एक भी, पत्ता हरा रह जाएगा ॥
लिख रहा हूँ कुछ नई संवेद्नाए यहाँ,
पढ़ने का एक अजब सा सिलसिला रह
जाएगा ॥
अपने शब्दों को न दे सियाशत की
जुबां अ बेअदब,
वरना हर एक शब्द काँटा सा गड़ा रह
जाएगा ॥
मैं भी लहरों सा मच्लू मगर दरिया
मेरी मंज़िल नहीं,
मैं भी दरिया हो गया तो मेरा क्या
रह जाएगा ॥
कल यूही फैल जाएगा “महेश” सबऔर
खुसबू की तरह,
सबा संग ले जाएगी अपने, जग ढूँढता रह जाएगा ॥
"महेश मुकदम"
"महेश मुकदम"