Friday, April 29, 2011

||देश तिरंगा, स्वदेश तिरंगा||


जय हिंद जय हिंद
क्या आज का युवा कम देश भगत है???
जो मरे नहीं है भावो की बहती जिसमे रसधार नहीं,
वह हिरदय नहीं है पत्थर है जिसमे स्वदेश का प्यार नहीं,
जोश है मगर होंश नहीं, सदगुण और सहजता का परिवेश नहीं,

हाँ, आज का युवा कम देश भक्त है! क्योंकि आज के युवा की सोच बदल चुकी है! आज का अधिकतर युवा अपने वर्चस्व को बढ़ने में लगा है! देश की संस्कृति और सभ्यता को नहीं!
अगर किसी युवा से पूछा जाए की आपका लक्ष्य क्या है, तो कोई कहता है मैं डॉक्टर बनूँगा, कोई कहता है इंजिनियर बनूँगा, मगर कोई ये नहीं कहता की मैं देश के लिए जियूँगा और अच्छा नागरिक बनूँगा!
आज के युवा की दिशा बदल चुकी है, जीने का मतलब और ढंग बदल चूका है!
अपनी सभ्यता और संस्कृति को पीछे छोड़ कर पश्चिमी सभ्यता को अपना रहे है! पश्चिमी सभ्यता ने युवा वर्ग की जड़े खोकली कर दी है! आज का नौजवान भारतीय सभ्यता को भूल कर गलत रास्तों पर कदम बढ़ा रहा है! पश्चिमी सभ्यता के आगोश में वह "उग्र स्वभाव" "नशे"
और "भ्रस्टता" जैसी महामारियो को उत्पन कर रहा है! युवा वर्ग का जोश गन्दी महफ़िलों में दम तोड़ रहा है!

देश भक्तों की कुर्बानिय शायद उन्हें याद नहीं, युवा वर्ग को अपने अत्तित से कोई मतलब नहीं! वह तो अपने भविष्य की चाह में, या सही मायनो में अपने वर्तमान को समर्थ करने में लगा है चाहे वह रास्ता गलत क्यों न हो! अपने सामर्थ्य की चाह में वह गलत रास्ते इख्त्यार करता है जो की उसका ही नहीं आने वाली नस्ल को ही बर्बाद कर सकता है! ये देश भक्ति नहीं,ये देश के साथ गद्दारी है!

गर वतन मुश्किल में है तो फिर कैसी साहूकारी,
अपने सामर्थ्य की चाह में न करो देश से गद्दारी!!

आज हर इंसान अपना दाव खेलने में लगा है! सोचता नहीं की वक़्त की जो मार लग रही है!
उसका अंजाम क्या होगा! देश के जाने कितने कोनो में ब्लास्ट हो चके है! सैंकड़ो की जाने जा चुकी है! सैकड़ो आज भी अपनी जिन्दगी और मौत के बिच लड़ रहे है!
एक तो महंगाई की मार, उपर से आतंकियों के हथियार,
देश का युवा ही इन सब पर रोक लगा सकता है! उसे समझना होगा मात्रभूमि से बढ़कर कुछ भी नहीं! जब तक युवा वर्ग एक नहीं होगा, अपनी सभ्यता और संस्कृति को याद नहीं रखेगा तब तक कुछ नहीं होगा! देश के प्रति अपनी जागरूकता समझनी होगी!
दम घुट जाएगा,
वक़्त लोट के फिर न आएगा,
तू संभल अ हिन्दुस्तान के नौजवान,
अब तो सीना तान के तू सामने आ,
के तेरे हाथो से फिर भारत माँ का दीप जल जाएगा,
अमन और शान्ति का तिरंगा फिर पहराया जायेगा!!

मैं चाहूँगा ये सब्द हर दिल में हो.....
देश तिरंगा, स्वदेश तिरंगा,
मेरी जान तिरंगा, मेरी आन तिरंगा,
और मेरा स्वाभिमान तिरंगा

"जय हिंद, जय भारत"
महेश रहे या न रहे
मेरा वतन सदा जिन्दा रहे!!

Thursday, April 28, 2011

||तू ‘सबा’ मेरी और मैं हूँ ‘जिया’ तेरा||

ये उम्र सरीखे ये बागपन तेरा,
खिली है कलियाँ और ये रूखापन मेरा||

लगे है मेले सदियों से,
और फूल खिले ग़मों के,
ये मासूमियत तेरी और बंजारापन मेरा||

हर वक़्त यादो में, हर वक़्त निगाहों में,
ये आफ़ताब सा चेहरा
के हर घडी मुझे तसव्वुर ये तेरा||
(आफ़ताब – सूर्य)

चलती आंधियो में ये एक चिराग है रोशन,
उस पर ये इंतज़ार है,
के कोई 'फानूस' हो मेरा||
(फानूस - कांच का कवर)

कभी तेरे ‘पैकर’ कभी ‘क़बा’ को निहारता हूँ,
के तू ‘सबा’ मेरी और मैं हूँ ‘जिया’ तेरा||
(पैकर - आकृति क़बा- लिबास)
(सबा- ठंडी हवा)

उनकी दुआओं से "उम्र ए जाविदा" "महेश"
के सख्सियत हो तेरी और "ख्याल ए परवाज़" हो मेरा||
(उम्र ए जाविदा- लम्बी जिन्दगी)

||जिन्दगी तेरे सवालो से खुद को मुकरते देखा||

एक बूँद मैय्सर के लिए खुद को भटकते देखा,
जिन्दगी तेरे सवालो से खुद को मुकरते देखा||

सुबह ‘सबा’ लाई थी नजराने कई,
पर एक धुल के झकोरे से खुद को बचते देखा||

शाम ढली और उठ चले कदम "मैयखाना ए पथ" पर,
आँख मिची-आँख खुली कुछ देर रुक-रुक कर,
फिर हमने ग़मों में खुद को पिघलते देखा||

गर इजाजत दे जमाना तो पीलू जी भर के,
यूँही जी लू जी भर के,
कल क्या पता हमने गुलसन जो खुद का उजड़ते देखा||

जब कभी "गम ए यार" से फुर्सत मिली हमें,
लिखी कोई गजल,
और फिर कागज- कलम पे खुद को उतरते देखा||

आँख से झर-झर गिरने लगे आँसू,
हमने जब खिलता हुआ बाग़ खुद का उजड़ते देखा||

एक बस उनसे दिल की बात सुनने की ख्वाहिस थी,
ये क्या हुआ उस पर भी रिश्तों को बिगड़ते देखा||

रात भर पहलु नशीं हो ये मुमकिन नहीं "महेश",
के जब सुबह को सांझ से खुद के लिए लड़ते देखा||

मैय्सर - सराब
सबा- ठंडी हवा

Wednesday, April 27, 2011

||जिन्दगी पहला सफ़र और आखरी हकीकत||

शाम ढलते-ढलते हम सफ़र पे लौट आये,
गली से जो उनकी गुजरे तो थकन में लौट आये||

हस्र हकीमो का भी हुआ बेअसर,
जो पुराने जख्म थे फिर से बदन में लौट आये||

शायद सपनो में बना रहा था आशियाना,
आँख जो खुली तो फिर से वन में लौट आये||

कभी खुद को "मुसव्विर" कभी "शायर" बनाया,
देखा पीछे मुड़ के तो फिर से कागज-कलम पे लौट आये||

हमने ख्याल ए परवाज को समझाया बहुत,
मगर न चाह कर भी फिर से जहान ए तरन्नुम में लौट आये||

चले जो खुशियाँ ढूंढने तो हार कर "महेश"
उदासियों के भवर में फिर से लौट आये||

Tuesday, April 26, 2011

||बहुत डरने लगे है जिन्दगी अब तेरे तगाजो से||



फ़िक्र हर बात की जबसे करने लगा हूँ मैं,
जाने क्यों इन तन्हाइयो से डरने लगा हूँ मैं ||

जिन्दगी की वीरानियो में इतना डूब चूका है दिल,
जाने आधी रात को भी कहाँ टहलने चला हूँ मैं ||

सोचता हूँ मैं दूर था अच्छा ही था इन सब सवालो से,
के रात दिन इन सवालो के जवाबो में टूटने लगा हूँ मैं ||

जिन्दगी के हर रिश्ते को जीता खुद को हारकर,
जिनकी लहू की रगों में अब तक बंधा हूँ मैं ||

खुद से भागते-२ एक पल ठहरने की तमन्ना में,
जिन्दगी की दोड़ में पिछड़ने लगा हूँ मैं ||

क्या कसूर था मेरा???
के कभी अपने वजूद की सीमाओं को पार नहीं किया,
इसलिए आज सबकी नजरो में गिरने लगा हूँ मैं ||

कभी आँखों को पोंछता हूँ कभी साँसों को रोकता हूँ,
के जिन्दगी अब तेरे तगाजो से बहुत डरने लगा हूँ मैं ||

सोचता हूँ कफ़न ओढ़ कर सो जाऊ कही,
जहा मैं हूँ और मेरी तन्हाई नहीं दूसरा कोई,
के जिन्दगी और मोंत की इस तडपन को महसूस करने लगा हूँ मैं ||
(महेश यादव)

Thursday, April 7, 2011

||कह दो देश के सब गद्दारों से||

कह दो देश के सब गद्दारों से|
इन देश के भ्रस्ट साहूकारों से||
मात्रभूमि को जो बेच (लूट) रहे|
सत्ताधारी बाजारों में||

के अब निकली है चिंगारी,
फिर आई लहू बहाने की बारी,
के अब डगमग-डगमग दिग्गज डोलेंगे,
वो अपना भेद अपने मुख से खोलेंगे,
के पृष्ठ भूमि के पन्नो पर उनको हम तोलेंगे,
जो खड़े हुए है अकड़-अकड़ गलियारों में||

कह दो देश के.....

के सहरे वतन बाँध कर निकले है,
सर कफ़न बाँध कर निकले है,
मात्रभूमि को बचायेंगे ये वचन बाँध कर निकले है,
देश आन की खातिर हम चमन बाँध कर निकले है,
दीमक लगने न देंगे हम अपनी संस्कृति के व्यवहारों में||

कह दो देश के .....

समय बदलाव का है ये होना बहुत जरूरी है,
देश की खातिर एक होना बहुत जरूरी है,
रास्ट्र स्वाभिमान-सम्मान की खातिर,
भाई चारे का बिज बोना बहुत जरूरी है,
के “महेश” अब मिटा देंगे नफरतो को अपने बंधन अधिकारों से||

कह दो देश के.....