Wednesday, October 5, 2011

||32 रुपे में अमीरी||


लूटे हुए आदर्शो पर हम चीख-२ कर रोते है ।
अपने लहू की बूँद जला-२ के दो अन्न के दाने बोते है ॥

पहले जयादा सोचा करता था ।
अपनों का पेट भरने को हर रोज मैं मरता था ॥

सायद मेरी गरीबी में योजना आयोग का एक अहसान हुआ ।
32 रुपे में अमीरी का नया फरमान हुआ ॥

अब मैं पैदल ही घर से चल पड़ता हूँ ।
रिक्शा के भाड़े को लेकर अपनों से लड़ पड़ता हूँ ॥

अब अपनी ३२ रुपे की अमीरी पर घमंड आ जाता है ।
लेकिन ये सब सोचते ही गरीबी का साया फिर से छा जाता है ??