Monday, October 11, 2010

एक मजदूर.....

"गरीबी में सास लेता, फिर अपने दिल को भाप लेता,
कभी दिन को मैं सोता, कभी रातों को जाग लेता,
गरीबी बड़ी जहरीली नागिन है साहब,
आदमी के जिस्म तो क्या ये रूह को भी डस लेती है"

एक मजदूर.....
न जात न पात न कोई "धर्म" न "मज़हब",
न कोई किसी से द्वेष न कोई परिवेश,
न कोई अहम सिर्फ पेट भरने का वहम,
नम्रता से झुका सर,हर बात में जी हजूर,
एक मजदूर...........

नक्शे-ऐ गुलिस्तान को स्वरुप में ढाल देना,
"क़ुतुबमीनार" से "ताजमहल" तक एक पत्थर से नाम देना,
बहुतों के महल बुलंद है,इनकी बुनियाद में इनके झोपड़े दबे हुए है,
के सायद आज भी,इनके हाथ कटे पड़े है,
माथे से टपकता पसीना,आंखे नम पड़ी है,
उसके चहरे पे ना जा, रूह में दीखता है नूर,

एक मजदूर.............

बुलंदियों के परबत पर बैठे,कैसे देखोगे इन्हें,
तुम्हारा ये मजदूर घाटी में खड़ा है,
हालात बदल सकते हो तुम इनके,
इनमे ना सही तुममे तो सुखार्ब जड़ा है,
तुमसे इनाम नहीं मागा इन्होने,दिहाड़ी मांगी है साहब,
तुम्हारा मिजाज़ फिर क्यों उखड़ा पड़ा है,
दिहाड़ी दो न साहब, क्यों बनते हो इतने क्रूर,

एक मजदूर.....................

अब बस मेरा ज़मीर रो रहा है साहब,
मैं तुमसे ज्यादा महनतकस हूँ,
फिर भी मेरे पास रोटी न कपडा न मकान है साहब,
अछी महक से महकती है तुम्हारी रसोई,
मेरा तो चूल्हा भी ठंडा पड़ा है ,
"महेश" पत्थर से तेरा कांच का महल तोड़ देता,
मगर मेरा हाथ पेट ने पकड़ा हुआ है,
इसीलिए सर झुकाए खड़ा हूँ,
कुछ तो रहम करो हूजूर,

एक मजदूर.....................
"Mahesh Yadav"

Friday, October 1, 2010

"मंदिर" हो वहा या "मस्जिद" हो वहा,

"मंदिर-मस्जिद" के हवालो से निकले है हवा,
क्यों उसे दुआ मिले मिल रही है बददुआ,
सयंम की कमान मैंने बाधे रखी,
फिर भी दिलो का मैल कम न हुआ,
यू तो जले है पहले भी आशियाँ बहुत,
मगर आज उस मालिक के दर से भी निकला धुआ...
क्या ये जरूरी है के "मंदिर" हो वहा या "मस्जिद" हो वहा,
सायद अब इन्ही से जाना जाता है जहाँ,
कोन समझाए-कोन उन्हे ये बताये,
वो मालिक एक है और एक है ये जहाँ,
के "मंदिर-मस्जिद-गुरद्वारो" और "चर्च" में बटा हुआ ये जहा,
नदियाँ, झील-समंदर समझ गए सब,
मगर नहीं समझा इंसां...
अगर एक सवाल पूछे हमसे खुदा,
की मैंने पहले "धर्म" "कर्म" बनाये या बनाया तुझे अ इंसां,
की तुझे इस जहाँ में लाने की है ये सजा,
मुझे चार हिस्सों में बाँट दिया,
मैने कभी इस मात्रभूमि को चूमा था,
इसकी रज में लोट कर मैं हुआ बड़ा,
मैने कभी किसी में कोई फर्क नहीं समझा,
फिर भी तुमने इस जहा में मुझको बाट दिया...
लड़ते हो बेगैरत बुजदिलो की तरह,
अरे मैं तो द्वापर सत त्रेता में भी एक ही था,
इस कलयुग में फिर तुमने मुझको बाँट दिया,
संसकिरती को पीछे छोड़ा और सभ्यताओं का नास किया,
अ इंसां क्यों विनास की रहा में तुने कदम रखा,
फिर मैं आऊं ध्वजा दिखाऊ, के उन वीरो को तुमने भुला दिया,
देश प्रेम और भाई चारे का नाम नहीं,
अ मुर्ख तुने "भगवान्" को भी दूजा बना दिया,
के आँखों में बंद कर उजियारे को,
अंधियारे को पल में हटा,
फिर दिल से बोल तू एक था एक है एक ही रहेगा सदा.....