Wednesday, October 5, 2011

||32 रुपे में अमीरी||


लूटे हुए आदर्शो पर हम चीख-२ कर रोते है ।
अपने लहू की बूँद जला-२ के दो अन्न के दाने बोते है ॥

पहले जयादा सोचा करता था ।
अपनों का पेट भरने को हर रोज मैं मरता था ॥

सायद मेरी गरीबी में योजना आयोग का एक अहसान हुआ ।
32 रुपे में अमीरी का नया फरमान हुआ ॥

अब मैं पैदल ही घर से चल पड़ता हूँ ।
रिक्शा के भाड़े को लेकर अपनों से लड़ पड़ता हूँ ॥

अब अपनी ३२ रुपे की अमीरी पर घमंड आ जाता है ।
लेकिन ये सब सोचते ही गरीबी का साया फिर से छा जाता है ??

Friday, August 19, 2011

जागो वतन के लोगो भारत माँ नीलाम न हो


फटेहाल जिन्दगी अब ठोर ढूंडती है,
उमीदों के उजाले लेकर एक भोर ढूंडती है,
इन आँखों के उजालो को कोई तो अंगार बनाओ यारो ॥

समेट लो दामन में अपने दर्द,
बुजदिली में जीने से अच्छा है मरो बन के मर्द,
अब पानी के जगह आँखों से खून बहाओ यारो ॥

बहुत सुन लिया संगीत,
बहुत गा चुके फिल्मो के गीत,
अब इस घायल हिन्दुस्तान पे भी कोई गीत बनाओ यारो ॥

जागो वतन के लोगो भारत माँ नीलाम न हो,
इतिहास के पन्नो में देशभक्ति बदनाम न हो,
अपनी छाती पर "महेश" इन्कलाब लिखवाने को तयार रहो,
फिर से भक्तसिंह की फांसी दोहराने को तैयार रहो,
फिर से उधम सिंह बन गलियों में आओ यारो ॥

ये तस्वीर कपटी नेताओ को दिखाओ यारो,
इस घायल हिन्दुस्तान को फिर आजादी दिलाओ यारो,
अपने जिस्म में खून को तब तक ठंडा न होने दो,
जब तक जीत न जाओ यारो ॥ 

Wednesday, June 15, 2011

||"माँ" मेरे जीवन का सम्पूर्ण अर्थ है||


"माँ"
मेरे जीवन का सम्पूर्ण अर्थ है "माँ"
तेरे बिना मेरा जीवन व्यर्थ है माँ ॥

मेरा विस्वास है संवेदना हैं अहसास है माँ,
तेरे सिवा कुछ भी नहीं तू सबसे ख़ास है माँ ॥

मेरे जीवन की धुप है तू ही छाँव है माँ,
गहरे अँधेरे में रौशनी का वास है माँ ॥

रोती हुई आँखों की हिल्लोर है माँ,
बूढी आँखों में उजियारा समेटे एक भोर है माँ ॥

झुलसते खयालो में कोयल की बोली है माँ,
कभी बिंदिया है कुमकुम है रोली है माँ ॥

कभी गंगा है जमुना है कभी सरस्वती है माँ,
मेरे हर दुःख दर्द में साथ चलती है माँ ॥

माँ रोटी है चूल्हा है हाथो का छाला है माँ,
जब गिरा हूँ तुने ही संभाला है माँ ॥

चाँद है सूरज है धरती है माँ,
जाने कितनी बार अपनों के लिए मरती है माँ ॥

झुलसती धुप में छाँव है माँ,
मेरी यादो में बैठा मेरा गाँव है माँ ॥

चोट लगे मुझको तो रोती है माँ,
अपना दर्द भूल मेरे लिए रातो को नहीं सोती है माँ ॥

तू दुनिया में न हो वो दिन कभी न आये माँ,
खुदा से है गुजारिश तू जब भी आवाज दे मुझको खड़ा पाए माँ ॥

मैं अपने जीवन की ये कविता "माँ" के नाम करता हूँ,
मैं “दुनिया” की हर "माँ" को सलाम करता हूँ ॥ 

Sunday, June 5, 2011

||मैं भी खून के आंसू रोया हूँ||


मैं भी खून के आंसू रोया हूँ,
अपनी आजादी का हक फिर से खोया हूँ,
मेरा खून भी खोला है,
के आग बना दिल शोला है,
ये सब सत्ता में बैठे लोगो की रची कहानी है,
के खून से लथ-पथ मात्रभूमि अनजानी है,
राजघाट का बापू भी उठ के रोया है,
के भारत माँ का स्वाभिमान आज हमने खोया है,
माँ-बहनों पर हाथ उठाया है,
बच्चो को घसीट-घसीट कर पिटवाया है,
ये खाकी की वहसीयत थी,
"या" केंद्र में बैठे सफ़ेद पोसो की नशिहत थी,
जो भी हो, सत्याग्रह मैदान आज सत्याग्रह समशान बन आया है||

मात्रभूमि आज फिर शर्मशार हुई,
जलियावाले बाग़ की कहानी फिर तैयार हुई,
बर्बरता की आखरी हद आज पार हुई,
इतिहास ने फिर एक काली रात दोहराई है,
ये देश चलाने वाले भ्रस्टता के अनुयायी है,
आज दिल्ली फिर से खून के आंसू रोई है,
जलियावाले बाग़ में गोरो की तानाशाही थी,
पर दिल्ली में तो काले गोरो ने बर्बरता अपनाई है,
इस लोकतंत्र की धरती पर एक काली रात फिर आई है||

अफ़सोस हुआ न दोष हुआ,
ये सिर्फ कायरता का शब्द कोष हुआ,
आतंकियों को "जी" लगाते है,
एक देश भक्त को "ठग" बताते है,
सच पूछो तो वो अपने चक्र्व्हयु में खुद ही घिरते जाते है||

ये रात का एक सन्नाटा था,
सन्नाटा था "या" चंद्र्ग्रह्र्ण का काँटा था,
सच पूछो तो कायरता थी दिल्ली में,
दिल्ली के सत्ता में बैठी "उस" बिल्ली में,
के रातो-रात कहर बरपाया है,
निहथ्थे लोगो को बेरहमी से पिटवाया है||

ये स्याही नहीं!
"महेश" तेरे खून से लिखी गवाही है,
इसका हर शब्द एक शोला बनेगा,
आजादी का गोला बनेगा,
वो हर जख्म का मोल चुकायेंगे,
माँ भारती के आंसू यू ना जाया जायेंगे,
ये सब लिखते-२ मेरी आँख से आंसू गिरते जाते,
हम इसी को अपना आजाद भारत देश बताते है||

जय हिंद ..जय माँ भारती

Friday, April 29, 2011

||देश तिरंगा, स्वदेश तिरंगा||


जय हिंद जय हिंद
क्या आज का युवा कम देश भगत है???
जो मरे नहीं है भावो की बहती जिसमे रसधार नहीं,
वह हिरदय नहीं है पत्थर है जिसमे स्वदेश का प्यार नहीं,
जोश है मगर होंश नहीं, सदगुण और सहजता का परिवेश नहीं,

हाँ, आज का युवा कम देश भक्त है! क्योंकि आज के युवा की सोच बदल चुकी है! आज का अधिकतर युवा अपने वर्चस्व को बढ़ने में लगा है! देश की संस्कृति और सभ्यता को नहीं!
अगर किसी युवा से पूछा जाए की आपका लक्ष्य क्या है, तो कोई कहता है मैं डॉक्टर बनूँगा, कोई कहता है इंजिनियर बनूँगा, मगर कोई ये नहीं कहता की मैं देश के लिए जियूँगा और अच्छा नागरिक बनूँगा!
आज के युवा की दिशा बदल चुकी है, जीने का मतलब और ढंग बदल चूका है!
अपनी सभ्यता और संस्कृति को पीछे छोड़ कर पश्चिमी सभ्यता को अपना रहे है! पश्चिमी सभ्यता ने युवा वर्ग की जड़े खोकली कर दी है! आज का नौजवान भारतीय सभ्यता को भूल कर गलत रास्तों पर कदम बढ़ा रहा है! पश्चिमी सभ्यता के आगोश में वह "उग्र स्वभाव" "नशे"
और "भ्रस्टता" जैसी महामारियो को उत्पन कर रहा है! युवा वर्ग का जोश गन्दी महफ़िलों में दम तोड़ रहा है!

देश भक्तों की कुर्बानिय शायद उन्हें याद नहीं, युवा वर्ग को अपने अत्तित से कोई मतलब नहीं! वह तो अपने भविष्य की चाह में, या सही मायनो में अपने वर्तमान को समर्थ करने में लगा है चाहे वह रास्ता गलत क्यों न हो! अपने सामर्थ्य की चाह में वह गलत रास्ते इख्त्यार करता है जो की उसका ही नहीं आने वाली नस्ल को ही बर्बाद कर सकता है! ये देश भक्ति नहीं,ये देश के साथ गद्दारी है!

गर वतन मुश्किल में है तो फिर कैसी साहूकारी,
अपने सामर्थ्य की चाह में न करो देश से गद्दारी!!

आज हर इंसान अपना दाव खेलने में लगा है! सोचता नहीं की वक़्त की जो मार लग रही है!
उसका अंजाम क्या होगा! देश के जाने कितने कोनो में ब्लास्ट हो चके है! सैंकड़ो की जाने जा चुकी है! सैकड़ो आज भी अपनी जिन्दगी और मौत के बिच लड़ रहे है!
एक तो महंगाई की मार, उपर से आतंकियों के हथियार,
देश का युवा ही इन सब पर रोक लगा सकता है! उसे समझना होगा मात्रभूमि से बढ़कर कुछ भी नहीं! जब तक युवा वर्ग एक नहीं होगा, अपनी सभ्यता और संस्कृति को याद नहीं रखेगा तब तक कुछ नहीं होगा! देश के प्रति अपनी जागरूकता समझनी होगी!
दम घुट जाएगा,
वक़्त लोट के फिर न आएगा,
तू संभल अ हिन्दुस्तान के नौजवान,
अब तो सीना तान के तू सामने आ,
के तेरे हाथो से फिर भारत माँ का दीप जल जाएगा,
अमन और शान्ति का तिरंगा फिर पहराया जायेगा!!

मैं चाहूँगा ये सब्द हर दिल में हो.....
देश तिरंगा, स्वदेश तिरंगा,
मेरी जान तिरंगा, मेरी आन तिरंगा,
और मेरा स्वाभिमान तिरंगा

"जय हिंद, जय भारत"
महेश रहे या न रहे
मेरा वतन सदा जिन्दा रहे!!

Thursday, April 28, 2011

||तू ‘सबा’ मेरी और मैं हूँ ‘जिया’ तेरा||

ये उम्र सरीखे ये बागपन तेरा,
खिली है कलियाँ और ये रूखापन मेरा||

लगे है मेले सदियों से,
और फूल खिले ग़मों के,
ये मासूमियत तेरी और बंजारापन मेरा||

हर वक़्त यादो में, हर वक़्त निगाहों में,
ये आफ़ताब सा चेहरा
के हर घडी मुझे तसव्वुर ये तेरा||
(आफ़ताब – सूर्य)

चलती आंधियो में ये एक चिराग है रोशन,
उस पर ये इंतज़ार है,
के कोई 'फानूस' हो मेरा||
(फानूस - कांच का कवर)

कभी तेरे ‘पैकर’ कभी ‘क़बा’ को निहारता हूँ,
के तू ‘सबा’ मेरी और मैं हूँ ‘जिया’ तेरा||
(पैकर - आकृति क़बा- लिबास)
(सबा- ठंडी हवा)

उनकी दुआओं से "उम्र ए जाविदा" "महेश"
के सख्सियत हो तेरी और "ख्याल ए परवाज़" हो मेरा||
(उम्र ए जाविदा- लम्बी जिन्दगी)

||जिन्दगी तेरे सवालो से खुद को मुकरते देखा||

एक बूँद मैय्सर के लिए खुद को भटकते देखा,
जिन्दगी तेरे सवालो से खुद को मुकरते देखा||

सुबह ‘सबा’ लाई थी नजराने कई,
पर एक धुल के झकोरे से खुद को बचते देखा||

शाम ढली और उठ चले कदम "मैयखाना ए पथ" पर,
आँख मिची-आँख खुली कुछ देर रुक-रुक कर,
फिर हमने ग़मों में खुद को पिघलते देखा||

गर इजाजत दे जमाना तो पीलू जी भर के,
यूँही जी लू जी भर के,
कल क्या पता हमने गुलसन जो खुद का उजड़ते देखा||

जब कभी "गम ए यार" से फुर्सत मिली हमें,
लिखी कोई गजल,
और फिर कागज- कलम पे खुद को उतरते देखा||

आँख से झर-झर गिरने लगे आँसू,
हमने जब खिलता हुआ बाग़ खुद का उजड़ते देखा||

एक बस उनसे दिल की बात सुनने की ख्वाहिस थी,
ये क्या हुआ उस पर भी रिश्तों को बिगड़ते देखा||

रात भर पहलु नशीं हो ये मुमकिन नहीं "महेश",
के जब सुबह को सांझ से खुद के लिए लड़ते देखा||

मैय्सर - सराब
सबा- ठंडी हवा

Wednesday, April 27, 2011

||जिन्दगी पहला सफ़र और आखरी हकीकत||

शाम ढलते-ढलते हम सफ़र पे लौट आये,
गली से जो उनकी गुजरे तो थकन में लौट आये||

हस्र हकीमो का भी हुआ बेअसर,
जो पुराने जख्म थे फिर से बदन में लौट आये||

शायद सपनो में बना रहा था आशियाना,
आँख जो खुली तो फिर से वन में लौट आये||

कभी खुद को "मुसव्विर" कभी "शायर" बनाया,
देखा पीछे मुड़ के तो फिर से कागज-कलम पे लौट आये||

हमने ख्याल ए परवाज को समझाया बहुत,
मगर न चाह कर भी फिर से जहान ए तरन्नुम में लौट आये||

चले जो खुशियाँ ढूंढने तो हार कर "महेश"
उदासियों के भवर में फिर से लौट आये||

Tuesday, April 26, 2011

||बहुत डरने लगे है जिन्दगी अब तेरे तगाजो से||



फ़िक्र हर बात की जबसे करने लगा हूँ मैं,
जाने क्यों इन तन्हाइयो से डरने लगा हूँ मैं ||

जिन्दगी की वीरानियो में इतना डूब चूका है दिल,
जाने आधी रात को भी कहाँ टहलने चला हूँ मैं ||

सोचता हूँ मैं दूर था अच्छा ही था इन सब सवालो से,
के रात दिन इन सवालो के जवाबो में टूटने लगा हूँ मैं ||

जिन्दगी के हर रिश्ते को जीता खुद को हारकर,
जिनकी लहू की रगों में अब तक बंधा हूँ मैं ||

खुद से भागते-२ एक पल ठहरने की तमन्ना में,
जिन्दगी की दोड़ में पिछड़ने लगा हूँ मैं ||

क्या कसूर था मेरा???
के कभी अपने वजूद की सीमाओं को पार नहीं किया,
इसलिए आज सबकी नजरो में गिरने लगा हूँ मैं ||

कभी आँखों को पोंछता हूँ कभी साँसों को रोकता हूँ,
के जिन्दगी अब तेरे तगाजो से बहुत डरने लगा हूँ मैं ||

सोचता हूँ कफ़न ओढ़ कर सो जाऊ कही,
जहा मैं हूँ और मेरी तन्हाई नहीं दूसरा कोई,
के जिन्दगी और मोंत की इस तडपन को महसूस करने लगा हूँ मैं ||
(महेश यादव)

Thursday, April 7, 2011

||कह दो देश के सब गद्दारों से||

कह दो देश के सब गद्दारों से|
इन देश के भ्रस्ट साहूकारों से||
मात्रभूमि को जो बेच (लूट) रहे|
सत्ताधारी बाजारों में||

के अब निकली है चिंगारी,
फिर आई लहू बहाने की बारी,
के अब डगमग-डगमग दिग्गज डोलेंगे,
वो अपना भेद अपने मुख से खोलेंगे,
के पृष्ठ भूमि के पन्नो पर उनको हम तोलेंगे,
जो खड़े हुए है अकड़-अकड़ गलियारों में||

कह दो देश के.....

के सहरे वतन बाँध कर निकले है,
सर कफ़न बाँध कर निकले है,
मात्रभूमि को बचायेंगे ये वचन बाँध कर निकले है,
देश आन की खातिर हम चमन बाँध कर निकले है,
दीमक लगने न देंगे हम अपनी संस्कृति के व्यवहारों में||

कह दो देश के .....

समय बदलाव का है ये होना बहुत जरूरी है,
देश की खातिर एक होना बहुत जरूरी है,
रास्ट्र स्वाभिमान-सम्मान की खातिर,
भाई चारे का बिज बोना बहुत जरूरी है,
के “महेश” अब मिटा देंगे नफरतो को अपने बंधन अधिकारों से||

कह दो देश के.....

Tuesday, January 11, 2011

//बाँध के सहरे वतन आई है मेरी ग़ज़ल//

बाँध के सहरे वतन आई है मेरी ग़ज़ल,
सहिदो की याद में फिर बन आई है मेरी ग़ज़ल,

मेरे ख्वाब की पंखुड़ी को ओढ़े ,
घूम रही है पर्वतो पर,
होसले विस्वास वहा से लाई है मेरी ग़ज़ल..

ढूंढती है आँखे फिर अपने वतन को साथियो,
के देश की आँखों का तेज बन आई है मेरी ग़ज़ल,

अपने खून से सीची है सहिदो ने ये जमी,
सहिदो की कुर्बानियों को भूल के भी भूल न पाएगी मेरी ग़ज़ल,

हर तरफ गमगीन आँखों को देखकर,
खुद-ब-खुद आंशुओ में नहाई है मेरी ग़ज़ल,

नफरतो के बोझ से दबे हुए थे सभी रास्ते,
शांति और अमन की नई राह बन आई है मेरी ग़ज़ल,

याद है सहिदो की सहादत के पल,
याद है खुदा की इबादत के पल,
के उन पलों में खुद को खो आई है मेरी ग़ज़ल,

हिंद जय हिंद के नारों की गूँज से समां जो रोशन हो गया,
के "महेश" चला कुछ कदम और हिंद की राहो में खो गया,
के हिंद और जय हिंद के नारों में आज समाई है मेरी ग़ज़ल,
"Mahesh Yadav"

Thursday, January 6, 2011

//ये बरस भी अब बीत गया//

ये बरस भी अब बीत गया,
मेरे मन को हरा,
समय फिर से जीत गया,
मेरी यादों का घड़ा भर गया,
मन का समुंदर रित गया ॥

खुशिया भी थी दरवाजे पर,
ग़मों ने भी दस्तक दी छाजे पर,
खुशियों को हरा,
गम फिर से जीत गया ॥

ये बरस भी अब बीत गया ॥

उनसे बातें भी दो चार हुई,
फिर मुलाकाते भी कई बार हुई,
बातो और मुलाकातों में,
बन वो मेरा मीत गया ॥

ये बरस भी अब बीत गया ॥

कुछ ख्याल, कुछ बातें,
 मैंने मन को अपने समझाया,
गली समाज मोहल्लो में देखा मातम,
फिर रोना मुझको भी आया,
हंसी-खुशी वादियों का, गीत मैंने फिर दोहराया,
के अब धीरे-धीरे मेरी आँखों से बह कर मेरा गीत गया ॥

ये बरस भी अब बीत गया ॥

फिर हक से हाथ बढाया मैंने, दोस्ती अपनी समझाने को,
खुद झूका और सर झुकाया मैंने, अपनी प्रीत जताने को,
विस्वास किया गैरो पर, और अपना समझा ज़माने को,
गलत मेरा विस्वास हुआ, के जमाना अब भूल मेरी प्रीत गया
के "महेश" जमाना फिर से जीत गया ॥

ये बरस भी अब बीत गया,
मेरे मन को हरा, समय फिर से जीत गया,
मेरी यादों का घड़ा भर गया,
मन का समुंदर रित गया ॥