Tuesday, August 17, 2010

ये सब मेरी कविता की परछाई हैं

अपने अधरों पर ले मैंने एक कविता नई बनाई हैं,
के टूटे हुए छंद लिए ये सब मेरी कविता की परछाई हैं!!

नहीं खबर किसी को हर जगह आपा धापी छाई है,
यूही बेखबर सब हर स्वर में एक उदासी छाई है,
के बेसुध अंगारों पर एक लहर उमड़ती आई हैं,
के आज गंगा माँ भी कान्हा के घर आंसू बहाने आई हैं........

अपने अधरों पर ले मैंने, एक कविता नई बनायीं हैं,
के टूटे हुए छंद लिए ये सब, मेरी कविता की परछाई हैं!!

गौएँ बे सहारा अब इस धर पर बेहाल हुई,
ये सब देख मेरी आँखों ने बुँदे चंद बरसाई हैं,
औरो की होड़ में अपनी संस्कृति को पीछे छोड़ दिया,
ये क्या कम है आज संस्कृति नंगा बदन देख सरमाई है
देश भक्ति का नाम नहीं अब, मयखानों में धूम मची,
शायद महेश अब हवा पश्चिमी सभ्यता लाई है.............

अपने अधरों पर ले मैंने एक कविता नई बनाई हैं,
के टूटे हुए छंद लिए ये सब मेरी कविता की परछाई हैं!!

अब नेताओ के भासण है और मात्रभूमि अपनों के लहू से नहाई है,
इस मेरे जान वतन को, प्यारे चमन को जाने किसकी नज़र लग आई हैं,
गीता ज्ञान को भूल चुके सब, गन्दी महफ़िलो ने धूम मचाई हैं,
के शायद महेश ये सब समय का बदलाव ही हो,
के मंदिर में भगवान् की मूरत सुनी नज़र जो आई हैं...........

अपने अधरों पर ले मैंने एक कविता नई बनाई हैं,
के टूटे हुए छंद लिए ये सब मेरी कविता की परछाई हैं!!

के मंदीर मस्जिद गुरद्वारे सुने पड़े है सारे,
के शायद धर्म-कर्म में राजनीती जो आड़े आई हैं,
के ये सब लिखते-२ मेरी आँखे भर आई हैं,
व्याकुल मन से मैंने ये कविता नई बनाई हैं,
फिर कही से "हिंद जय हिंद" के नारों की,
एक भीनी सी खुसबू आई है,
के आज फिर सहिदो की याद मुझे अपनी और खीच लाई हैं..............

अपने अधरों पर ले मैंने एक कविता नई बनायीं हैं,
के टूटे हुए छंद लिए ये सब मेरी कविता की परछाई हैं!!

No comments:

Post a Comment