Monday, July 26, 2010

॥ अधूरी नज़्मे ॥

1)
मेरी नाकामी मुझ पे हस्ती और सहारे छुट गए.
अब मेरी ज़ीस्त के सब किनारे टूट गए,
हम जला के चिराग बाम पर बैठे रहे,
पर जलने वाले सब चिराग हमसे रूठ गए ||

2)
जो कभी ख़त्म ना हो
ये महफिलों के दोर यूहीं चलतें रहे
जीस्त जवानी और जान के फैंसले
फिर अपने लहू से धुलते रहे
हो गैर मुमकिन अगर जिन्दगी लुटानी पड़े
की गहराइयों के समुंदर फिर पलते रहे ||

3)
मेरी मौत पे रोये वो जो गैर हो
मुझे कंधा वो दे जिनसे बैर हो
सुकून मिलेगा मेरी रूह को,
वर्ना छोड़ देना मुझे उस जगह
जहाँ तनहाइयों का कहर हो ||

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