Tuesday, January 14, 2014

॥मैं जब भी देखता हूँ उसको, नजरे थम सी जाती है॥ श्रृंगार रस

मैं जब भी देखता हूँ उसको, नजरे थम सी जाती है,
हो मोहिनी या परी कोई मन को कितना बहकाती है,
यौवन का अल्ल्ड्पन चलती है, इतराती है,
जैसे हो नदी कोई लहरों सी बल खाती है॥

उसकी नाज़ूक सी गौरी बाहें,
फिर छूने को मन चाहे,
कदम उसकी और बढ़ चले,
जाने क्यू आज रोके ये न रुके,
मृगनयनी, चंचल, चितवन मे जैसे वो शरमाती है॥
मैं जब भी देखता हूँ उसको.........

सर से पाँव तलक सुन्दरता,
मन मे मिलने की व्याकुलता,
देख रहा हु उसको पाने को,
जी आज मेरा नहीं भरता,
डूबने को जी चाहता है जब केश घटाए लहराती है॥
मैं जब भी देखता हूँ उसको.........

उसके होंटो की ये लाली,
काजल सी आंखे काली-काली,
जिसके आगे हो बादल फीके,
नभ रोशनी करदे इतने नीके,
दाँत जड़े हो हीरे जैसे जब वो धीरे से मुस्काती है॥
मैं जब भी देखता हूँ उसको.........

होठों का यूं मिलना,
इंद्र्धनुष का हो जैसे खिलना,
गुलाबी पंखुड़िया हो जैसे,
महक रही हो खुद ही वैसे,
लगती है कोयल की बोली, स्वर मे धीमे से जब वो गाती है॥
मैं जब भी देखता हूँ उसको.........

पैरो मे पायल और बिछुओं का संगम,
आंखो मे सपने माथे पे कुम-कुम,
भूल गया ये देख अपना गम,
घुँगरू की मोहक सी ये धुन,
करने लगा नृत्य सुन ये रून-झुन,
सुध-बुध खो देता हु, पैरो को जब वो थिरकाती है॥
मैं जब भी देखता हूँ उसको.........

अधरो की लाली रखी हो जैसे नथुनो पर,
सुबह होने वाली हो जैसे एक क्षण पर,
जैसे लहर टकराए कांटो के तट पर,
अब कैसे ठहरे महेश सब्र बाँधकर,
खो जाने को दिल करता है, जब भी वो पलके झपकाती है॥
लगता है “ऋतु” आ गयी, प्यार की बुँदे जब वो बरसाती है॥

मैं जब भी देखता हूँ उसको.........

1 comment:

  1. बहुत खूब महेश जी, बहुत सादगी से वर्णन किया है आपने...

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