Tuesday, April 26, 2011
||बहुत डरने लगे है जिन्दगी अब तेरे तगाजो से||
फ़िक्र हर बात की जबसे करने लगा हूँ मैं,
जाने क्यों इन तन्हाइयो से डरने लगा हूँ मैं ||
जिन्दगी की वीरानियो में इतना डूब चूका है दिल,
जाने आधी रात को भी कहाँ टहलने चला हूँ मैं ||
सोचता हूँ मैं दूर था अच्छा ही था इन सब सवालो से,
के रात दिन इन सवालो के जवाबो में टूटने लगा हूँ मैं ||
जिन्दगी के हर रिश्ते को जीता खुद को हारकर,
जिनकी लहू की रगों में अब तक बंधा हूँ मैं ||
खुद से भागते-२ एक पल ठहरने की तमन्ना में,
जिन्दगी की दोड़ में पिछड़ने लगा हूँ मैं ||
क्या कसूर था मेरा???
के कभी अपने वजूद की सीमाओं को पार नहीं किया,
इसलिए आज सबकी नजरो में गिरने लगा हूँ मैं ||
कभी आँखों को पोंछता हूँ कभी साँसों को रोकता हूँ,
के जिन्दगी अब तेरे तगाजो से बहुत डरने लगा हूँ मैं ||
सोचता हूँ कफ़न ओढ़ कर सो जाऊ कही,
जहा मैं हूँ और मेरी तन्हाई नहीं दूसरा कोई,
के जिन्दगी और मोंत की इस तडपन को महसूस करने लगा हूँ मैं ||
(महेश यादव)
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