Thursday, December 16, 2010

“मेरा अंधविश्वास”

सपनो के पीछे मैं भागता हूँ,रातो को मैं जागता हूँ,
अपनों से मैं पूछता हूँ, खुद को मैं ढूंढ़ता हूँ,
फिर अहसास क्या मुझे मैं खुद को जानता हूँ ॥

उम्मीदों पे विस्वास का मैं समुंदर बहा रहा हूँ,
आज अपने दिल को मैं कुछ ऐसे समझा रहा हूँ,
मुझे रोकती है मोज़े मैं बहा जा रहा हूँ,
फिर लहरों के साथ अपना गम छुपा रहा हूँ॥

फुहारे थी जो सावन की
सभी नजराने थे रंगी बहारो के,
के अब उन बहारों में मैं डूबता जा रहा हूँ॥

उम्मीदे खोक्लेपन से मेरे दामन को झ्न्झोरती थी,
नाकामी की धुल हर वक़्त आँखों में दोड़ती थी,
की अब इस नाकामी की धुल को अपने अश्रु बना रहा हूँ,
मैं देखता हूँ लगा है खुशियों का मेला फिर कही,
न जाने क्यों फिर इन खुशियों से अपना दामन छुड़ा रहा हूँ॥

के फिर कही मेरी नज़र धुंधला रही थी,
सायद मुझे कुछ समझा रही थी,
पर वक़्त की पड़ी धुल मुझे कुछ न दिखा रही थी,
मैने लोटना चाहा अपने साए के साथ,
मगर अब मेरी नज़रे ही मेरे साए से दामन छुड़ा रही थी,
मैने लाख कोशिश की संभलने की ,
फिर भी मैं हर बार गिरता रहा हूँ॥

यू तो "महेश" मंजिले तलाशने को रास्ते बहुत थे,
मगर बेवजह कितने रास्तों पे चलता रहा हूँ॥ 

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