"गरीबी में सास लेता, फिर अपने दिल को भाप लेता,
कभी दिन को मैं सोता, कभी रातों को जाग लेता,
गरीबी बड़ी जहरीली नागिन है साहब,
आदमी के जिस्म तो क्या ये रूह को भी डस लेती है"
एक मजदूर.....
न जात न पात न कोई "धर्म" न "मज़हब",
न कोई किसी से द्वेष न कोई परिवेश,
न कोई अहम सिर्फ पेट भरने का वहम,
नम्रता से झुका सर,हर बात में जी हजूर,
एक मजदूर...........
नक्शे-ऐ गुलिस्तान को स्वरुप में ढाल देना,
"क़ुतुबमीनार" से "ताजमहल" तक एक पत्थर से नाम देना,
बहुतों के महल बुलंद है,इनकी बुनियाद में इनके झोपड़े दबे हुए है,
के सायद आज भी,इनके हाथ कटे पड़े है,
माथे से टपकता पसीना,आंखे नम पड़ी है,
उसके चहरे पे ना जा, रूह में दीखता है नूर,
एक मजदूर.............
बुलंदियों के परबत पर बैठे,कैसे देखोगे इन्हें,
तुम्हारा ये मजदूर घाटी में खड़ा है,
हालात बदल सकते हो तुम इनके,
इनमे ना सही तुममे तो सुखार्ब जड़ा है,
तुमसे इनाम नहीं मागा इन्होने,दिहाड़ी मांगी है साहब,
तुम्हारा मिजाज़ फिर क्यों उखड़ा पड़ा है,
दिहाड़ी दो न साहब, क्यों बनते हो इतने क्रूर,
एक मजदूर.....................
अब बस मेरा ज़मीर रो रहा है साहब,
मैं तुमसे ज्यादा महनतकस हूँ,
फिर भी मेरे पास रोटी न कपडा न मकान है साहब,
अछी महक से महकती है तुम्हारी रसोई,
मेरा तो चूल्हा भी ठंडा पड़ा है ,
"महेश" पत्थर से तेरा कांच का महल तोड़ देता,
मगर मेरा हाथ पेट ने पकड़ा हुआ है,
इसीलिए सर झुकाए खड़ा हूँ,
कुछ तो रहम करो हूजूर,
एक मजदूर.....................
"Mahesh Yadav"
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