हर
चहरे पे दूसरा चहरा तैयार मिला ॥
जब भी सच को जानना चाहा,
कोई न कोई झूठ का हकदार मिला ॥
जब भी किया विसवाश खुद से ज्यादा
उनपर,
पलट के जो देखा तो रूह पे ख़राशो का
अंबार मिला ॥
मैं डरता था अपनेपन से शायद,
इसी लिए शौहरतों मे गैरो का
व्यापार मिला ॥
वफा, नेकी, सच्चाई, की बात जब भी करना चाहा,
जहालत ये देखो गफलत मे लोगो का दरबार मिला ॥
कितना था दम मेरे चराग मे ये तब ही
पता चला,
जब बिना फ़ानूस के मंजिल मे तूफानो
का भंडार मिला ॥
खंजर लिए खड़े थे कई मीत हाथो मे,
अब “महेश” क्या चले दुआए क्या
सिकवा गिला ॥
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